Sunday

हम लोग....


हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग ।
बार-बार पीछे मुड़ देखते,
गुजरे वक्त की तलछट में
सैलाब टटोलते हैं ।
नियॉन लाइट की चौंध में
उजाले तराशते
खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।
छिपकर हजार मुखौटों में
अपनी ही शिनाख्त का
सामान सहेजते हैं
हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग।
लटके हैं असुरक्षा की सलीब में,
शापित हैं अश्वत्थामा की तरह
रिसते घावों का दंश लिए
निरंतर भटकने को।

25 comments:

के सी said...

जिजीविषा के पैरों में पड़ी बेडियों और सन्दर्भों से झांकते शब्दों को अच्छा चित्रण किया है एक सम्पूर्ण कविता के लिए बधाई !

मुकेश कुमार तिवारी said...

मोना जी,

हरकीरत जी के ब्लॉग से आना हुआ "आरसी" पर।
हकीकत में अक्षर-अक्षर बिम्बित करता है जीवन में ओढे गये आदर्शों को/ औपचारिकताओं में बंधा हुआ दिन / अतीत को ढोते हुये किया हुआ इंतजार।

बहुत ही अच्छे से विषय को निखारा है, बधाईयाँ।

मुकेश कुमार तिवारी

Neeraj Kumar said...

हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग ।
True...

Alpana Verma said...

'लटके हैं असुरक्षा की सलीब में,
शापित हैं अश्वत्थामा की तरह
रिसते घावों का दंश लिए
निरंतर भटकने को। '

ek kadwee haqiqat.
behad khubsurat bhivyakti.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छे शब्द,
सुन्दर भावपूर्ण रचना।

नवनीत नीरव said...

खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।
behtarin pantiyan hain ye.Do pantiyon mein aapne sari baat spst kar di hai.
Achchhi rachana ke liye dhanyawad.
Navnit Nirav

Kavi Kulwant said...

khoobsurat...

डॉ .अनुराग said...

गुजरे वक्त की तलछट में
सैलाब टटोलते हैं ।
नियॉन लाइट की चौंध में
उजाले तराशते
खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।
छिपकर हजार मुखौटों में
अपनी ही शिनाख्त का
सामान सहेजते हैं





एक एक शब्द अपने में कई अर्थ समेटे है...आपकी कविता .किसी गध की माफिक है जिसे यूँ ही नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता ....

Deepak Tiruwa said...

हम सचमुच पिछली सदियों ,युगों से चिपके बैठे हैं,हमने अवैज्ञानिकता को परंपरा और अतार्किकता को आस्था बनाया हुआ है...."हमारे शास्त्रों में लिखा है कि ..." पर हम शुरू हो कर ख़त्म भी हो जाते हैं ....पर हम किसी शाम ताज़ा हवा में अंगडाई लेंगे और पिछली सदी का पसीना माथे से पोंछ डालेंगे

Mumukshh Ki Rachanain said...

खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।
छिपकर हजार मुखौटों में
अपनी ही शिनाख्त का
सामान सहेजते हैं

बहुत खूब. सुन्दर प्रस्तुति. मुखौटा उतार कर सच का दर्शन कराया.
बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बहुत अच्छी कविता.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

me thodi aalaaochnaa karnaa chahtaa hoo..bura to nahi manengi naa aap???

kuchh esa rahne bhi deti ki aalochnaa kar paataa//////

bahut umda ..yatharthvaad.

रवीन्द्र दास said...

sirf dukh, avsad, mayusi- kahin koi gati nahin!
kya hai ye?

mark rai said...

बहुत ही खुबसूरत लिखा है आपने ......
एक श्वेत श्याम सपना । जिंदगी के भाग दौड़ से बहुत दूर । जीवन के अन्तिम छोर पर । रंगीन का निशान तक नही । उस श्वेत श्याम ने मेरी जिंदगी बदल दी । रंगीन सपने ....अब अच्छे नही लगते । सादगी ही ठीक है ।

शोभना चौरे said...

bhut sundar rachna apne ap ko dhudne
ki kashmkash ko bhut khubsurti se abhivykt kiya hai apne .
bdhai
shobhana

जयंत - समर शेष said...

"'लटके हैं असुरक्षा की सलीब में,
शापित हैं अश्वत्थामा की तरह
रिसते घावों का दंश लिए
निरंतर भटकने को। '"

पंक्तियों ने बहुत गहरे अर्थ समझा दिए...
क्यों हम सब अभिशप्त हैं?
क्यों कोई दवा नहीं है??

बहुत सुन्दर लिखा है..

~जयंत

विक्रांत बेशर्मा said...

नियॉन लाइट की चौंध में
उजाले तराशते
खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।


बहुत खूब मोना जी !!!

पूनम श्रीवास्तव said...

मोना जी ,
बहुत वैचारिक और यथार्थपरक कविता ...
पूनम

कडुवासच said...

... प्रभावशाली अभिव्यक्ति ।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अरे आप तो सन्डे को ज्यादा गहरा सोच डालते हो....इस गहराई के लिए आपको बधाई.....और कविता के लिए....धन्यवाद......और भविष्य के लिए....शुबकामनाएं....!!

Harash Mahajan said...

Jeeva ke satya ko darshaati aapki rachnayeiN bahoot hi khoobsoorat rahieN....daad qabool kareiN


Harash

Hari Joshi said...

गहरी वेदना और उससे उबरने की छटपटाहट शब्‍दधारा बन कर सामने आई है।

नीरज गोस्वामी said...

बेहतरीन रचना है ये आपकी...सच्चाई बयां करती हुई....बधाई
नीरज

sanjay saxena said...

मोना जी
आपका ब्लाग पढ़ा। बहुत अच्छा लगा। ब्लाग पर मौलिक रचना पढ़ना अच्छा लगा। मेरा मानना है कि शौक भी एक पौधे की तरह होता है तमाम व्यस्तता के बाद भी उसमें पानी देने की चाहत मजबूत इच्छा शक्ति वाले ही पूरा कर पाते हैं। आपने कविता लिखने के शौक को बरकरार रखने की जो पहल की हैं। वह धन्यवाद योग्य है।

vijay kumar sappatti said...

main pahli baar aapke blog par aaya hoon....

aapki is rachna ne mujhe kaafi prabhavit kiya hai .. man ko choo gayi aur haqiqat ko bayan karti hui hai ...

aapko dil se badhai

meri nayi kavita " tera chale jaana " aapke pyaar aur aashirwad bhare comment ki raah dekh rahi hai .. aapse nivedan hai ki padhkar mera hausala badhayen..

http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html

aapka

vijay