Sunday

           वह और मैं
वह अक्सर कुछ तलाता नजर आता है
सड़कों पर बिखरी रोनी की कई किस्मों में
अँधेरे की सीली देह सहलाता है।
तटों पर गूँजते आस्था के स्वरों के बीच
किनारे पड़ी भग्न मूर्तियों के लिए आँसू बहाता है।
वह अक्सर नज़र आता है मुझे
रिवाज़ों के चटकीले लिबास को
 तार-तार कर हँसते हुए,
राख के ढेर को टटोल
बुझी हुई चिंगारियों को सूँघते हुए
और मैं घबरा उठती हूँ
कहीं यह मेरा मैं ही तो नहीं
जो  भय की सलाखें तोड़ भागा हो।
आँखें मींच कर मैं अपना कोना -कोना टटोलती हूँ
शुक्र है वह अभी वहीं है
क्योंकि वह जानता है उसका
बाहर आना
बोनसाई की तरह गमले में सजे मेरे कद को
और बौना कर देगा
फिर भी
अनगिनत सूलियों का बोझ ढोता
वह जीवित है तो बस एक उस अनमोल पल के लिए जो

उसे (मेरे मैं) और मुझे  एक कर देगा।

Saturday

google img.
मैदानों पगडंडियों में बिछी घास
धूप के थपेड़ों में झुलसती है।
कहीं पुआल की शक्ल में धू-धू कर जलती है
फिर भी धरती की गहराइयों में
छिपा कर रखती है अपना वजूद
कि कभी तो मौसम का मिजाज रूमानी होगा और...........
कुछ इसी तरह हमारे वे सपने
जो तमाम जद्दोज़हद के बाजूद,
जो बरगद नहीं बन पाते
दबाए रखते हैं अपनी जड़ों को कहीं गहरे में

क्योंकि मौसम का बदलना तय है और हालात का भी़……………

Monday

सुबह!!!

     कल सारा  दिन
     बंजर धरती सा
     चटकता रहा,
     राह भूली बंजारन  सा  
     यहाँ -वहाँ भटकता रहा 
     और रात,
      दर्द के  उलझे  धागों से 
      कहानियाँ बुनती रही ,
      टूटे  सपनों के दरिन्दों से
     मिल साजिशें रचती रही .
      पर जब आँख खुली तो,
     सुबह मेरे सिरहाने बैठ ,
     किरण -किरण सींच कर 
     उजालों के बीज रोप रही थी.