Sunday

मत लिखना....

मत लिखना,
इस निर्मम सदी का इतिहास।
जिसने मशीनों में प्राण तराशे हैं,
और जीवित इंसानों को
पुतलों में तब्दील कर दिया है
जिसने नदियों के उजले तन पर,
विष कलश उड़ेले हैं,
मौसम के सारे रंगों को
धूसर कर दिया है।
मत लिखना
इस निर्मम सदी का इतिहास।
जिसने अंगडाई लेती तरुनाई की
दूब पर अंगारे सुलगाये हैं,
बूढे दरख्तों की जड़ों को
गमलों का मोहताज बनाया है।
सदियों से दबी हुई आदिम वहशियत
के जीवाश्म को फिर जीवित कर,
खड़ा किया है ।
मत लिखना,
इस निर्मम सदी का इतिहास।
धकेल देना इसे किसी अंध कूप में
ताकि फिर कोई इसे जीवित न कर सके।

Wednesday

चलो कहीं ठहरें.......

रुको,
चलो कहीं ठहरें,
कितने दिन हुए
वक्त के पीछे भागते,
जीतने की चाह में
पलों को हारते,
चलो कहीं ठहरें,
किनारे रहकर
ज़माने को दौड़ते देखें।

बहुत दिन हुए
रौशनी की भीख मांगते,
मिट्टी के घरोंदों में
आशियाना सजाते,
चलो कहीं ठहरें,
अंतर की सीपी में,
सुख के मोती टटोलें।

कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।

Sunday

मैं एक क़स्बा......

मैं एक क़स्बा हूँ। जिस तरह प्रेमचंद का होरी तत्कालीन भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता था, वैसे ही आप मुझे समकालीन कस्बों का प्रतिनिधि समझ सकते हैं, वैसे ये मेरा बड़बोलापन है पर इसे आपको मेरी कस्बाई मानसिकता की मजबूरी समझ कर झेलना होगा। कभी-कभी मुझे अपने आप पर गर्व होता है कि देखो मैंने किस तरह से परम्पराओं को सहेजा है वर्ना महानगरों ने तो विदेशी संस्कृति को ओढ़ लिया है। महानगरों से आने वाली हवाओं को मैं आशंकित होकर देखता हूँ, पर एक गुप्त बात आपको बताऊँ कि मैं भी बदलना चाहता हूँ पर इस बात को मैं सार्वजानिक रूप से स्वीकार नहीं कर सकता। वैसे ही जैसे दिन भर छह मीटर साड़ी में लिपटी और नई नवेलियों को सर पर घूंघट न रखने पर कोसती चुन्नू उर्फ़ चिन्मय की अम्मा अकेले मैं देवरानी की नाइटी पहनकर आईने मैं अपना फिगर देखती है। खैर मेरे चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता मैं तो आपके सामने हांडी के कुछ चावल रख रहा हूँ आप टटोलकर तय कीजियेगा की पके हैं या नहीं ?
जरा सामने नजर उठा कर देखिये स्थूल काय शरीर ढोते, हर हाँफ के साथ "हर नर्मदे" कह सीढियां चढ़ते ये जो नजर आ रहे हैं वे हैं-पंडित हरेराम शास्त्री रिटायर्ड प्राचार्य, सरकारी स्कूल में पढ़ाकर उम्र गुजार देने के बाद पूरी दुनिया उद्दंड छात्रों का समूह नजर आती है। शास्त्री जी के बड़े सुपुत्र हैं शिवरंजन , ये उदारीकरण से कुछ पहले जवान हो चुकी पौध हैं, कसबे के महाविद्यालय से जितनी डिग्रियां बटोर सकते थे बटोर चुके आजकल ट्यूशन पढ़ाकर अच्छा खासा कमा लेते हैं पर लड़की वालों की निगाह में आज तक बेरोजगार हैं और शादी के शॉपिंग मॉल का आउटडेटेड माल हैं । आस पास की कन्याओं को इन्होंने चाहे जिस भी दृष्टि से देखा हो पर उनकी निगाह में ये ट्यूशन सर से अधिक कुछ नहीं हो पाए, शिवरंजन जी को आजकल एक नया शौक लगा है गम के प्याले पी-पीकर ( और कुछ ये पिताजी के डर से पी नहीं सकते) कविताओं की जुगाली करने का।
चलिए बात करते हैं शास्त्री जी के दूसरे पुत्र की, बंगलौर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर सचिन मेरे और शास्त्री जी दोनों के गर्व का विषय है, सचिन की तरक्की को शास्त्री जी पुरखों का आशीर्वाद और अपनी कड़ी मेहनत का प्रतिफल मानते हैं। मंदी के दौर में नौकरी बचाए रखने के साथ सचिन ने हाल ही में विजातीय सहकर्मी से चार साल इश्क फरमाने के बाद घर में बिना बताये विवाह कर लिया। घर में न बताने के दो कारण थे एक तो शिवरंजन नाम का रोड़ा अभी भी अटका हुआ था दूसरे अंडे के ठेले की तरफ से भी निगाह बचाकर चलने वाले शास्त्री जी भला चिकनसूप प्रेमी बहु कैसे स्वीकार करते।
खैर, ऊंट की चोरी कब तक छिपी रहती, वो भी सूचना क्रांति के युग में। सूचना किसी विस्फोट की तरह आई और घर-घर चर्चित हुई। शास्त्री जी निढाल होकर बैठ गए अपने इस बेटे से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं, नाराज होकर बेटे से मोबाईल का नाता भी तोड़ लिया। आखिरकार शास्त्राइन उर्फ़ सचिन की अम्मां ( इनके यही दो नाम प्रचलित हैं) ने कुछ तो पुत्र मोह से वशीभूत होकर और कुछ बुढापा सुख से कट जाने की आशा में पति को समझा-मना ही लिया और आज सचिन अपनी पत्नी शाश्वती को लेकर गृहनगर आ रहा है।
...............तो शास्त्री जी ने विजातीय बहु को अपना ही लिया मजबूरी वश ही सही। अंत भला तो सब भला । अरे ...........आप क्या सोचने लगे ! जरा ये भी सुनते जाइये की सचिन कि अम्मां ने अब तक विजातीय बहु को लाड़ प्यार का वास्ता देकर रसोई घर में झाँकने नहीं दिया है।
डिब्बा बंद सामग्री के बल पर गृहस्थी की शुरुआत करती शाश्वती को भी सबकुछ समझते हुए इसमें कोई आपत्ति नहीं हुई.......... तो जनाब यह समायोजन है।
पर मुझे उम्मीद है की किसी दिन परिवर्तन भी आएगा आखिर शुरुआत तो ऐसे ही होती है।

हम लोग....


हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग ।
बार-बार पीछे मुड़ देखते,
गुजरे वक्त की तलछट में
सैलाब टटोलते हैं ।
नियॉन लाइट की चौंध में
उजाले तराशते
खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।
छिपकर हजार मुखौटों में
अपनी ही शिनाख्त का
सामान सहेजते हैं
हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग।
लटके हैं असुरक्षा की सलीब में,
शापित हैं अश्वत्थामा की तरह
रिसते घावों का दंश लिए
निरंतर भटकने को।

आकाँक्षायें

असीम अनंत आकाश सी,
सामर्थ्य
गौरैया के नन्हे पंख भर,
भूख
चोंच भर दाने तलाशती,
मन
बाँधने को आतुर मुक्त संसार,
तन
पाना चाहे सुख की घनी छांह,
आत्मा
छटपटाती तन की कारा में,
और जीवन
अपनी परिभाषा खोजते,
रह जाता अतृप्त ही,
इस अनंत आकाश में
एक बिंदु बनकर ।

Thursday

शाखाओं के रिश्ते


कभी एक छत के नीचे रहे लोग
मिला करते हैं अब भी कभी-कभी
उसी छत के तले
मजबूरियों की केंचुल से निकल,
दुनियादारी की गर्द में लिपटी
एक दूसरे की आँखों में
अपना अक्स टटोलते हैं
दीवारों की दरारों को
हथेलियों से ढंकते हुए,
छत को बचाए रखने के
ताम-झाम जुटाते हैं
और त्यौहार बीतते-बीतते
यह जानते हुए भी कि
कोई बारिश ढहा देगी
आपस में मिलने के
इस बहाने को भी,
लौट जाते हैं वापस
बोनसाई की डालों पर
लटके आशियानों में।

Sunday

तलाश सुबह की

यातनाओं के घने कोहरे में
भ्रम के जंगलों के बीच
टूटी उलझी कल्पनाएँ
रास्ते तलाशती है,
दर्द का समंदर पीने के बाद
रेगिस्तान की आँधियों में
थकी कमज़ोर आँखें
नदी का आगोश तलाशती हैं,
अँधेरा ख़त्म न हो सकेगा
जिन्दगी ख़त्म होने तक
फिर भी हर रात
मुट्ठी भर सुबह तलाशती है.

Saturday

माँ....

तुलसी चौरे पर हर सांझ
दीप जलाती मेरी माँ
दिनभर गृहस्थी की फटी गुदड़ी में ,
पैबंद लगाने की अपनी सारी
जद्दोज़हद के बाबजूद,
अतीत के बक्से से निकालकर
सुख की चादर लपेट लेती है ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः ....
उसकी प्रार्थना के स्वरों में
घुल जाते हैं ,
कितने ही मंदिरों के घंटों और
मस्जिदों के अजानों के स्वर ।
विश्व मंगल की कामना करती
बंद आंखों से पिघलने लगते हैं,
दिनभर में समेटे दर्द के शिलाखंड
हारी हुई लड़ाइयों से जूझने की विवशता ,
फिर कुछ ही पलों में माँ
अपने ईश्वर को उसकी दी हुई
सारी पीड़ा लौटा देती है ,
और समेट लेती है
नन्हे से दिए का मुट्ठी भर उजाला,
उकेरने लगती है
हम सब की ज़िन्दगी के ,
काले अंधियारे पृष्ठों पर
सुख के सुनहले चित्र।

Sunday

मैं औरत.....

मेरे आस-पास की औरतें
अब बदल रहीं हैं,
औरतपन बरक़रार रखते हुए भी,
अपना अलग इतिहास लिख रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
अब बेटियों को अपनी,
उतरन की विरासत सोंपने की बजाय
नया लिबास गढ़ते हुए
उसकी आंखों में
अपने सपने भर रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
जो काली परछाइयों सी
दीवारों पर लटकी थीं,
अब दिन के उजाले में
वजूद का अहसास दिला रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
बड़ी पापड़ सुखाते हुए,
रगड़ रगड़ कढ़ाई चमकाते हुए,
सजती निखरती हुई,
आईने में ख़ुद को देख इतरा रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
इतना सब होते हुए भी
हर बारिश के बाद
परम्पराओं की संदूकची से
संस्कारों के पुराने कपड़े निकाल
धूप दिखा रहीं हैं ।
महिला दिवस 09

Friday

इंतज़ार.....

टूटी दीवार के आसपास
फुदकती नन्ही गौरैया की चहचहाहट,
फूंकती है प्राण, सुबह की मृत देह में।

और खंडहर में बसी दो बूढी आँखें,
जाग उठती हैं, मीलों दूर बसे,
बेटे को देखने की लालसा लिए।

गौरैया जानती है उड़ना सीखने पर,
परिंदे नहीं लौटा करते घोंसलों की ओर
पर बूढी आँखें समझते हुए भी
नहीं छोड़ती हरकारे का इंतज़ार।

और धीरे धीरे मरता दिन
रात का कफ़न ओढ़ सो जाता है,
खंडहर की एक ईंट और गिर जाती है।

Sunday

तारे ....

बच्चे अब नहीं बनाया करते
गीली रेत के घरोंदे,

दीवारों पर अब नजर नहीं आती
अनगढ़ हाथों की चित्रकारी,

वृद्धाश्रम में बैठी बूढी नानी
अकेले दोहराती परियों की कहानी,

कंप्यूटर से चिपकी नन्ही आंखों को
बचाया जाता है संवेदनाओं के संक्रमण से,

क्योंकि बनाना है
उन्हें मशीनों की तरह,
और मशीनें कभी हंसा या रोया नहीं करती हैं।

विश्वास

माना बहुत बड़ा है
दर्द जो आंखों से
बहकर सारे वजूद को
डुबो देता है,
पर दर्द से भी बड़ा है -

विश्वास,
जो पक्षी के पंखों में पल
आकाश हो जाता है,
जो सीप की पलकों में
सिमट मोती हो जाता है,

विश्वास ,
जो लहरों के दिल में
मचल समंदर हो जाता है,
जो प्रेम का पिता बनकर
मसीहा हो जाता है ।