Sunday

स्वागत है, तुम्हारा नवागत हे नए वर्ष











काट बीते वर्ष की फसल
अतीत के खलिहान में रख,
खोल द्वार दिशाओं के
चल पड़ा सूरज
हाँक समय का रथ.

भोर की किरणें
लिख गयीं पर्वत शिखरों पर
प्रशस्ति पत्र,
स्वागत है, तुम्हारा नवागत
हे नए वर्ष,
हों नए-नए विमर्श.

अब न लौटें दफ़न हो चुके
मृतक पराजय के क्षण,
दूर हो भ्रम के भूकम्पों का भय
हो आस्था का अभिनन्दन.

मुट्ठी भर पलों के बीज
कर दें धरती का श्रृंगार,
रचें शिल्प उच्चतम आदर्शों के
शिल्पी मानव के हाथ. 

झलक उठें हर अंतर में
रचयिता की दृष्टि का उत्कर्ष,
स्वागत हैं, तुम्हारा नवागत
हे नए वर्ष,
हों नए-नए विमर्श...

Tuesday

तू न जाने आसपास है खुदा...


फिर सुबह हुई है,
नरम बिस्तरों पर, मीठी नींद के सपनों से
हकालकर उठा दिया जायेंगे,
सीली धरती पर अधपेट सोये मजदूर बच्चे,
मरियल कुत्ते को
अपनी उम्र से बड़ी गाली देते,
पत्थर मारकर खीझ निकालेंगे,
भूख की रेत पर रोज की तरह
रेखाएं खींचने निकल जायेंगे,
रोते हुए स्कूल जाते बच्चे  को
बिजूका की शक्ल बना हँसाएँगे और
गर्म कचौरियों की भाप निगलते हुए
एफएम् के साथ सुर मिलाते हुए गायेंगे ...
तू न जाने आस-पास है खुदा...और
कूड़े, रद्दी अखबारों या जूठे बर्तनों
के ढेर के पीछे छिपे, उम्मीद का
गोफन फेंकते शातिर शिकारियों का
आसान शिकार बन जायेंगे या
फिर पूतना की तरह विषपान कराती
मिलों की गोद में समां जायेंगे.
मोना परसाई, भोपाल