कल सारा दिन
बंजर धरती सा
चटकता रहा,
राह भूली बंजारन सा
यहाँ -वहाँ भटकता रहा
और रात,
दर्द के उलझे धागों से
कहानियाँ बुनती रही ,
टूटे सपनों के दरिन्दों से
मिल साजिशें रचती रही .
पर जब आँख खुली तो,
सुबह मेरे सिरहाने बैठ ,
किरण -किरण सींच कर
उजालों के बीज रोप रही थी.
1 comment:
bina andhere ke ujaale ki kimat pata hi nahi chalti.kuhaasa thodi der baad hi chhnt jaata hai.har raat ke baad bhor ke kirno sa---
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