फिर सुबह हुई है,
नरम बिस्तरों पर, मीठी नींद
के सपनों से
हकालकर उठा दिया जायेंगे,
सीली धरती पर अधपेट सोये
मजदूर बच्चे,
मरियल कुत्ते को
अपनी उम्र से बड़ी गाली देते,
पत्थर मारकर खीझ निकालेंगे,
भूख की रेत पर रोज की तरह
रेखाएं खींचने निकल जायेंगे,
रोते हुए स्कूल जाते
बच्चे को
बिजूका की शक्ल बना हँसाएँगे
और
गर्म कचौरियों की भाप
निगलते हुए
एफएम् के साथ सुर मिलाते हुए
गायेंगे ...
तू न जाने आस-पास है खुदा...और
कूड़े, रद्दी अखबारों या
जूठे बर्तनों
के ढेर के पीछे छिपे,
उम्मीद का
गोफन फेंकते शातिर
शिकारियों का
आसान शिकार बन जायेंगे या
फिर पूतना की तरह विषपान
कराती
मिलों की गोद में समां
जायेंगे.
मोना परसाई, भोपाल