रुको,
चलो कहीं ठहरें,
कितने दिन हुए
वक्त के पीछे भागते,
जीतने की चाह में
पलों को हारते,
चलो कहीं ठहरें,
किनारे रहकर
ज़माने को दौड़ते देखें।
बहुत दिन हुए
रौशनी की भीख मांगते,
मिट्टी के घरोंदों में
आशियाना सजाते,
चलो कहीं ठहरें,
अंतर की सीपी में,
सुख के मोती टटोलें।
कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
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