कल सारा दिन
बंजर धरती सा
चटकता रहा,
राह भूली बंजारन सा
यहाँ -वहाँ भटकता रहा
और रात,
दर्द के उलझे धागों से
कहानियाँ बुनती रही ,
टूटे सपनों के दरिन्दों से
मिल साजिशें रचती रही .
पर जब आँख खुली तो,
सुबह मेरे सिरहाने बैठ ,
किरण -किरण सींच कर
उजालों के बीज रोप रही थी.