वह और मैं
वह अक्सर कुछ तलाशता नजर आता है
सड़कों पर बिखरी रोशनी की कई किस्मों में
अँधेरे की सीली देह सहलाता है।
तटों पर गूँजते आस्था के स्वरों के बीच
किनारे पड़ी भग्न मूर्तियों के लिए आँसू बहाता है।
वह अक्सर नज़र आता है मुझे
रिवाज़ों के चटकीले लिबास को
तार-तार कर हँसते हुए,
राख के ढेर को टटोल
बुझी हुई चिंगारियों को सूँघते हुए
और मैं घबरा उठती हूँ
कहीं यह मेरा मैं ही तो नहीं
जो भय की सलाखें तोड़ भागा हो।
आँखें मींच कर मैं अपना कोना -कोना टटोलती हूँ
शुक्र है वह अभी वहीं है
क्योंकि वह जानता है उसका
बाहर आना
बोनसाई की तरह गमले में सजे मेरे कद को
और बौना कर देगा ।
फिर भी
अनगिनत सूलियों का बोझ ढोता
वह जीवित है तो बस एक उस अनमोल पल के लिए जो
उसे (मेरे मैं) और मुझे एक कर देगा।