Tuesday

तू न जाने आसपास है खुदा...


फिर सुबह हुई है,
नरम बिस्तरों पर, मीठी नींद के सपनों से
हकालकर उठा दिया जायेंगे,
सीली धरती पर अधपेट सोये मजदूर बच्चे,
मरियल कुत्ते को
अपनी उम्र से बड़ी गाली देते,
पत्थर मारकर खीझ निकालेंगे,
भूख की रेत पर रोज की तरह
रेखाएं खींचने निकल जायेंगे,
रोते हुए स्कूल जाते बच्चे  को
बिजूका की शक्ल बना हँसाएँगे और
गर्म कचौरियों की भाप निगलते हुए
एफएम् के साथ सुर मिलाते हुए गायेंगे ...
तू न जाने आस-पास है खुदा...और
कूड़े, रद्दी अखबारों या जूठे बर्तनों
के ढेर के पीछे छिपे, उम्मीद का
गोफन फेंकते शातिर शिकारियों का
आसान शिकार बन जायेंगे या
फिर पूतना की तरह विषपान कराती
मिलों की गोद में समां जायेंगे.
मोना परसाई, भोपाल 

5 comments:

संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma said...

क्या बात है मोना...मजदूरों की वर्तमान में स्थिति का बिलकुल यथार्थवादी चित्रण...वह भी काव्यात्मक अंदाज में..बधाई

manisha sanjeev said...

आपकी इस अभिव्यक्ति में आज की बाल मजदूरी पर सुंदर प्रस्तुति.......

पूनम श्रीवास्तव said...

bahut -bahut hi dil ki gahraiyon se nikli ek yatharth prastuti----
hardik badhai
poonam

Himanshu Pandey said...

सच कहती कविता! खूबसूरत।

Mamta Bajpai said...

मन को मोह लिया आपने तो
कितना मार्मिक लिखा है ...मोना जी बधाई