''आधुनिक पिता होने का तमगा लगाए गर्वित चिड़ा रात को उठकर बच्चे की नैपी बदलता, सुबह चिड़ी के मना करने पर भी गुनगुनाते हुए जूठे बर्तन साफ़ कर दिया करता और अपने अधेड़ पड़ौसी चंदू जी की पुरुषवादी मानसिकता पर हिकारत की नजर फेंकता. चिड़ी मातृत्त्व सुख से गर्वित सुख की तलहटी में डूबती उतरती ढेर सारे सपने देखती जिन्हें हर रात चिड़ा चिड़ी की पलकों से अपनी पलकों में समेट लिया करता और चिड़ी संतुष्ट हो गहरी नींद में सो जाया करती.''
किस्सा कुछ इस तरह है, कि - एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी, या यूँ कहें कि एक था राजा और एक थी रानी, तो भी कुछ गलत नहीं होगा. आखिर कार तमाम किस्से इसी तरह तो शुरू हुआ करते हैं. महानगर के मध्य आय वर्गीय इलाके में तीसवें माले पर सजे अपने फ़्लैट को वे किसी राजमहल से कम नहीं आंकते थे, ये अलग बात थी कि गाँव से आयी चिड़े कि मौसी इस घोंसले में ठीक से पैर फैलने की जगह तक न होने कि शिकायत करती थी, पर चिड़े और चिड़ी के लिए यह सब बातें बेमानी थीं, यह उनकी दुनिया थी- उनकी अपनी दुनिया . बालकनी में खड़े होते तो अनायास ही आसमान को छूने के लिए हाथ ऊपर उठा लेते, सुबह सुबह कुनमुनाती चिड़ी के अलसाए सौंदर्य पर फ़िदा होकर सूरज रोज ही गालों पर गुलाल मल दिया करता जिसकी लाली सारे दिन छायी रहती.
चिड़ा सोफ्टवेयर इंजीनियर था, कसबे में उड़ना सीखकर महानगर के खुले आकाश में पंख फैला रहा था, जिन छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए पिता संघर्ष किया करते थे, उन्हें अनायास ही अपने चारों तरफ इकठ्ठा होते देखकर अपनी क़ाबलियत पर गर्वित हो उठता था, कुछ छोटे मोटे अभाव भी थे जिन्हें वे बड़ी रूमानियत के साथ जिया करते थे, मसलन कभी नल में पानी न आना, जेब में पैसा; पर घर में आटा न होना, पावर कट हो जाना, तमाम छोटी-मोटी तकलीफों को सहन करती चिड़ी मुस्कराती रहती और चिड़ा उसकी सहनशीलता पर निहाल हो जाता.
और फिर - एक सुबह सूरज की झोली का गुलाल भी कम पड़ गया, चिड़ी के सिरहाने एक नन्हा गुलाबी चिड़ा भी मुस्कुरा रहा था, चिड़ी और चिड़े के घोंसले का मौसम खुशगवार हो गया. आधुनिक पिता होने का तमगा लगाए गर्वित चिड़ा रात को उठकर बच्चे की नैपी बदलता, सुबह चिड़ी के मना करने पर भी गुनगुनाते हुए जूठे बर्तन साफ़ कर दिया करता और अपने अधेड़ पड़ौसी चंदू जी की पुरुषवादी मानसिकता पर हिकारत की नजर फेंकता. चिड़ी मातृत्त्व सुख से गर्वित सुख की तलहटी में डूबती उतरती ढेर सारे सपने देखती जिन्हें हर रात चिड़ा चिड़ी की पलकों से अपनी पलकों में समेट लिया करता और चिड़ी संतुष्ट हो गहरी नींद में सो जाया करती.
घिसी पिटी सी एक बात है वक्त सदा एक सा नहीं रहता सो वक्त को तो बदलना ही था, आर्थिक मंदी के भयावह दौर ने चिड़े की नौकरी निगल ली, फ़्लैट, गाडी की ईएम्आई भरने की चिंता और तमाम चुनौतियां आंधी के गुबार की तरह घर के कोने कोने में फ़ैल गयी. अब चिड़ी ने अपने पंख टटोले हौंसलों को सहेजा और आकाश का रुख किया, कुछ ही समय में हालात काबू में आ गए बस अब भूमिकाएं बदल गयी थी और इसके साथ बहुत कुछ बदल गया, चिड़ा अब भी घर के कामों में मदद किया करता पर गर्व की बजाये कुढ़न के साथ, चिड़ी के पंखों को भी आकाश छूने का चाव हो गया था, चिड़ा अब भी हर रात चिड़ी के थके हुए चेहरे पर झुकता और हौले से उसकी पलकों के रास्ते उसके सपनों में झाँकने की कोशिश करता , पर खुद को न देख बुझ जाता, अब चिड़ी के सपने उसके अपने थे जिनमें चिड़े की सांझेदारी नहीं थी, आखिर मंदी का दौर भी कोहरे की तरह छंट गया अब चिड़ा भी बेरोजगार नहीं रहा .
तीसवें माले का फ़्लैट नंबर 305 अब भी आबाद था, नन्हें चिड़े की डोर से बंधे चिड़ा और चिड़ी; और समझौते के पेसमेकर के सहारे जीवित उनकी छोटी सी दुनिया, पर अब सूरज सुबह-सुबह खिड़की से सेंधमारी नहीं कर पाता था चिड़ी ने पीली धूप की चौंध से बचने के लिए खिड़की में मोटे परदे दाल दिये थे।
मोना परसाई
10 comments:
ओर जंगल उसी तरह चल रहा था बदस्तूर..
बहुत बढिया मोना...क्या बात है तुमने तो गागर में सागर जैसा काम कर दिया.
दुनिया यूँ ही वक़्त के साथ साथ चलती रहेगी ..आज के सच को आपने अपने लफ़्ज़ों में उजागर कर दिया ..
chida -chidi ke madhyam se aapneaaj ke sach ko vistaar roop diya hai .
bahut hi prabhavi lakh.
poonam
आज दिनांक 6 अगस्त 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट महानगर के आसपास शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
विलक्षण पोस्ट...आपकी लेखन क्षमता को सलाम...
नीरज
prabhawshali aur sashakt rachna.
बहुत बढ़िया रचना। बधाई।
वाह! बहुत बढ़िया। बधाई।
bahut achcha lekh hai.
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