(सुनते हैं आज माँ दिवस है )
तुलसी चौरे पर हर सांझ
दीप जलाती मेरी माँ
दिनभर गृहस्थी की फटी गुदड़ी में ,
पैबंद लगाने की अपनी सारी
जद्दोज़हद के बाबजूद,
अतीत के बक्से से निकालकर
सुख की चादर लपेट लेती है ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः ....
उसकी प्रार्थना के स्वरों में
घुल जाते हैं ,
कितने ही मंदिरों के घंटों और
मस्जिदों के अजानों के स्वर ।
विश्व मंगल की कामना करती
बंद आंखों से पिघलने लगते हैं,
दिनभर में समेटे दर्द के शिलाखंड
हारी हुई लड़ाइयों से जूझने की विवशता ,
फिर कुछ ही पलों में माँ
अपने ईश्वर को उसकी दी हुई
सारी पीड़ा लौटा देती है ,
और समेट लेती है
नन्हे से दिए का मुट्ठी भर उजाला,
उकेरने लगती है
हम सब की ज़िन्दगी के ,
काले अंधियारे पृष्ठों पर
सुख के सुनहले चित्र।
मोना परसाई , प्रदक्षिणा
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11 comments:
प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त हुई.
कुछ शंकाएं थी जिनका कोई हल नहीं था, एक ई पता भी नहीं था जिससे आपके बारे में पूछा जा सके...
इन सुंदर शब्दों से रची इस कविता के साथ फिर से आने का आभार.
बहुत अच्छी बात .... माँ होती ही ऎसी है
बहुत सुन्दर ! अपरूप !
bahut sundar...
सुन्दर रचना!
मातृ-दिवस की बहुत-बहुत बधाई!
ममतामयी माँ को प्रणाम!
भावभीनी अभिव्यक्ति
bahut khoob ji
खुशनसीब होते हैं वे लोग जिनकी माँ उनके साथ होती है...
अच्छी प्रस्तुति
www.jugaali.blogspot.com
फिर कुछ ही पलों में माँ
अपने ईश्वर को उसकी दी हुई
सारी पीड़ा लौटा देती है ,
और समेट लेती है
नन्हे से दिए का मुट्ठी भर उजाला,
उकेरने लगती है
हम सब की ज़िन्दगी के ,
काले अंधियारे पृष्ठों पर
सुख के सुनहले चित्र।
Mona ji,
man ke oopar likhi gayi behatareen panktiyan.
Poonam
सख्त रास्तों में भी आसान सफ़र लगता है
ये मुझे मेरी मॉं की दुआओं का असर लगता है
एक मुद्दत से मेरी मॉं नहीं है सोई
मैंने इक बार जो कहा,'मां मुझे डर लगता है !'
धन दौलत, मान सम्मान, आस औलाद
मेरी हर बात की फिक्र है उसको
न होगी जब वो
ये अहसास भी एक गुनाह सा लगता है
एक अहसास है 'खुदा'
मुझे तो मां सा लगता है ।
आपकी रचना ने माँ की ममता को नयी परिभाषा दी है.
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