Sunday

           वह और मैं
वह अक्सर कुछ तलाता नजर आता है
सड़कों पर बिखरी रोनी की कई किस्मों में
अँधेरे की सीली देह सहलाता है।
तटों पर गूँजते आस्था के स्वरों के बीच
किनारे पड़ी भग्न मूर्तियों के लिए आँसू बहाता है।
वह अक्सर नज़र आता है मुझे
रिवाज़ों के चटकीले लिबास को
 तार-तार कर हँसते हुए,
राख के ढेर को टटोल
बुझी हुई चिंगारियों को सूँघते हुए
और मैं घबरा उठती हूँ
कहीं यह मेरा मैं ही तो नहीं
जो  भय की सलाखें तोड़ भागा हो।
आँखें मींच कर मैं अपना कोना -कोना टटोलती हूँ
शुक्र है वह अभी वहीं है
क्योंकि वह जानता है उसका
बाहर आना
बोनसाई की तरह गमले में सजे मेरे कद को
और बौना कर देगा
फिर भी
अनगिनत सूलियों का बोझ ढोता
वह जीवित है तो बस एक उस अनमोल पल के लिए जो

उसे (मेरे मैं) और मुझे  एक कर देगा।

1 comment:

पूनम श्रीवास्तव said...

bahut hi gahan abhivykti liye hai aapki yah amuly post-------badhai