रुको,
चलो कहीं ठहरें,
कितने दिन हुए
वक्त के पीछे भागते,
जीतने की चाह में
पलों को हारते,
चलो कहीं ठहरें,
किनारे रहकर
ज़माने को दौड़ते देखें।
बहुत दिन हुए
रौशनी की भीख मांगते,
मिट्टी के घरोंदों में
आशियाना सजाते,
चलो कहीं ठहरें,
अंतर की सीपी में,
सुख के मोती टटोलें।
कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
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23 comments:
सुन्दर भाव, गहरे अर्थ। वाह प्रदक्षिणा जी
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
बहुत सुन्दर गहरे भाव लिए है आपकी यह रचना ..इसको पढना अच्छा लगा
सारा खेल इस ठहरने पर ही तो रुका है मोना जी......न वक़्त ठहरता ओर ना इन्सान !
v.sensitive....touchy....n beautiful.....too
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
बेहतरीन कविता,
सुन्दर भाव।
बधाई।
मोना जी,
प्रस्तुत कविता में व्यक्ती के मोहभंग की अवस्था का बहुत ही खूबसूरत चित्रण किया है और प्रतीकों ने अर्थ को और गहराई प्रदान की है।
अपने ही साये से होड़/दौड़ में किसी मोड़ पर ठहरने का विचार आता है तब नैराश्य नही विरक्ती जन्म लेती है और उसी विरक्ती को बड़ी सफाई से शब्दों में ढाला है....
.........
जीतने की चाह में
पलों को हारते,
चलो कहीं ठहरें,
किनारे रहकर
ज़माने को दौड़ते देखें।
बहुत अच्छी कविता दिल को छूने वाली।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
इक ठहराव ..
सुकून भरे पड़ाव के इंतज़ार में ही न जाने कितने मील चल निकलते हैं!
बहुत अच्छी रचना!
सुकून देती पंक्तियाँ ... कविता - ही - कविता ...
ऐसा लगा जैसे आपने मेरे ही मन का आह्वान किया हो कितने सहज तरीके से कितनी गंभीर बात कह दी है. कविता एक ऐसे दिव्य माहौल का सृजन करती है जिसमे असीम शांति का सुख देख जा सकता है. विचारों के उलझे हुए धागों को और कसने की जगह एक बार शांत चित्त से उन्हें देखेने की प्रेरणा भी है यहाँ. पता नहीं मैं ऐसी ही स्थिति मैं हूँ इस्ल्ये मुझे लगा रहा है या फिर मैंने ठीक जाना है.
चलो कहीं ठहरें,
किनारे रहकर
ज़माने को दौड़ते देखें।
काश ऐसा होता पर.......
बहुत खुब ....
खुबसूरत रचना..
बहुत ही अच्छी कविता है और भाव मन को प्रभावित करते हैं
कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
मोना जी ,
अच्छी भावनात्मक अभिव्यक्ति बहुत चुने हुए शब्दों में.बधाई .
पूनम
namaskar..
bahut der se aapki kavitayen padh raha hoon ..is kavita ne man ko kahin rok sa diya hai .. aap bahut accha likhte hai ...aapki kavitao ki bhaavabhivyakti bahut sundar hai ji ..
कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
ye waali pankhtiyan apne aap me kuch kahti hai ...
meri badhai sweekar kare,
dhanyawad.
vijay
pls read my new poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html
बहुत दिन हुए
रौशनी की भीख मांगते,
मिट्टी के घरोंदों में
आशियाना सजाते,
चलो कहीं ठहरें,
अंतर की सीपी में,
सुख के मोती टटोलें।
बहुत अच्छी भावनात्मक कविता ...आपकी कविताओं में बिम्बों का अच्छा प्रयोग दीखता है ..
हेमंत कुमार
रुको,
चलो कहीं ठहरें,
कितने दिन हुए
वक्त के पीछे भागते,
जीतने की चाह में
पलों को हारते,
चलो कहीं ठहरें,
किनारे रहकर
ज़माने को दौड़ते देखें।
लाजवाब अभिव्यक्ति .....!!
मोना जी यूँ तो हर बन्ध बेहतरीन लिखा है आपने ...पर ये पंक्तियाँ छू गयीं ....'किनारे रहकर ज़माने को दौड़ते देखें।'
बहुत खूब.....!!
वाह!कितनी अच्छी अभिव्यक्ति दी है आप ने....
...............कंचनलता चतुर्वेदी
कई रातें गयी
सोते हुए भी जागते,
सपनों की धुंध में
अनजाने अक्स तलाशते,
चलो कही ठहरें,
उम्मीदों पर छाई
उदासी की चादर समेटें।
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सुन्दर है,मेरा कहना इस पर,
’आओ चलें एक ऐसी जगह पे,
जहां से लौट के न आवाज़े आयें.
तमाम यादों के साये जहां पे,
हमें भूले से भी पहचान न पायें.’
Congrats for good presentation, Happy Blogging.
bahut hi acchi rachana hai mona ji.
AAPKO BADHAI....
चलो कहीं ठहरें,
ठहराव की यह चाहत ही तो हमे ठहरने नही देती.
सलाम करता हू
बेहतरीन अभिव्यक्ति......बधाई.....
bahut khoob..
सरल! सजग! सोम्य!
गर्मियों की शाम में शीतल हवा की तरह!
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