Sunday

हम लोग....


हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग ।
बार-बार पीछे मुड़ देखते,
गुजरे वक्त की तलछट में
सैलाब टटोलते हैं ।
नियॉन लाइट की चौंध में
उजाले तराशते
खोखली हंसी के प्याले में
सुख की बूँदें निचोड़ते हैं।
छिपकर हजार मुखौटों में
अपनी ही शिनाख्त का
सामान सहेजते हैं
हम पिछली सदी की विरासत
कांधों पर लादे हुए लोग।
लटके हैं असुरक्षा की सलीब में,
शापित हैं अश्वत्थामा की तरह
रिसते घावों का दंश लिए
निरंतर भटकने को।

आकाँक्षायें

असीम अनंत आकाश सी,
सामर्थ्य
गौरैया के नन्हे पंख भर,
भूख
चोंच भर दाने तलाशती,
मन
बाँधने को आतुर मुक्त संसार,
तन
पाना चाहे सुख की घनी छांह,
आत्मा
छटपटाती तन की कारा में,
और जीवन
अपनी परिभाषा खोजते,
रह जाता अतृप्त ही,
इस अनंत आकाश में
एक बिंदु बनकर ।

Thursday

शाखाओं के रिश्ते


कभी एक छत के नीचे रहे लोग
मिला करते हैं अब भी कभी-कभी
उसी छत के तले
मजबूरियों की केंचुल से निकल,
दुनियादारी की गर्द में लिपटी
एक दूसरे की आँखों में
अपना अक्स टटोलते हैं
दीवारों की दरारों को
हथेलियों से ढंकते हुए,
छत को बचाए रखने के
ताम-झाम जुटाते हैं
और त्यौहार बीतते-बीतते
यह जानते हुए भी कि
कोई बारिश ढहा देगी
आपस में मिलने के
इस बहाने को भी,
लौट जाते हैं वापस
बोनसाई की डालों पर
लटके आशियानों में।